Women reservation bill : जानिए क्या हैं महिला आरक्षण बिल,अब तक क्या-क्या हुआ?
संसद का पाँच दिन का विशेष सत्र सोमवार से शुरू हुआ. संसद की पुरानी इमारत में शुरू हुआ यह सत्र संसद की नई इमारत में ख़त्म होगा.
सोमवार शाम केंद्रीय कैबिनेट की बैठक भी हुई. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ मोदी कैबिनेट ने महिला आरक्षण बिल को मंज़ूरी दे दी है. यह बिल पिछले 27 साल से लटका हुआ है.
कैबिनेट का फ़ैसला सार्वजनिक तो नहीं हुआ है लेकिन केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने ट्वीट कर इसकी जानकारी दी, हालांकि बाद में उन्होंने अपना ट्वीट डिलीट कर दिया.
इसके बाद इस बात की चर्चा तेज़ हो गई कि सरकार विशेष सत्र में महिला आरक्षण बिल पेश कर सकती है.
महिला आरक्षण बिल सोमवार को लोकसभा में भी चर्चा में रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुराने संसद भवन में अपने अंतिम भाषण में कहा कि दोनों सदनों में अब तक 7500 से अधिक जन प्रतिनिधियों ने काम किया है, जबकि महिला प्रतिनिधियों की संख्या करीब 600 रही है. उन्होंने कहा कि महिलाओं के योगदान ने सदन की गरिमा बढ़ाने में मदद की है.
इसके बाद नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी ने पिछले 75 सालों में कांग्रेस सरकारों के कामकाज़ का लेखा-जोखा पेश किया. इस दौरान सोनिया गांधी ने उन्हें महिला आरक्षण बिल की याद दिलाई थी.
क्या है महिला आरक्षण बिल
महिला आरक्षण बिल 1996 से ही अधर में लटका हुआ है. उस समय एचडी देवगौड़ा सरकार ने 12 सितंबर 1996 को इस बिल को संसद में पेश किया था. लेकिन पारित नहीं हो सका था. यह बिल 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में पेश हुआ था.
बिल में संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फ़ीसदी आरक्षण का प्रस्ताव था. इस 33 फीसदी आरक्षण के भीतर ही अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए उप-आरक्षण का प्रावधान था. लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं था.
इस बिल में प्रस्ताव है कि लोकसभा के हर चुनाव के बाद आरक्षित सीटों को रोटेट किया जाना चाहिए. आरक्षित सीटें राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में रोटेशन के ज़रिए आवंटित की जा सकती हैं.
इस संशोधन अधिनियम के लागू होने के 15 साल बाद महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण ख़त्म हो जाएगा.
महिला आरक्षण बिल पर राजनीति
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 1998 में लोकसभा में फिर महिला आरक्षण बिल को पेश किया था. कई दलों के सहयोग से चल रही वाजपेयी सरकार को इसको लेकर विरोध का सामना करना पड़ा.
इस वजह से बिल पारित नहीं हो सका. वाजपेयी सरकार ने इसे 1999, 2002 और 2003-2004 में भी पारित कराने की कोशिश की. लेकिन सफल नहीं हुई.
बीजेपी सरकार जाने के बाद 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार सत्ता में आई और डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने.
यूपीए सरकार ने 2008 में इस बिल को 108वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में राज्यसभा में पेश किया. वहां यह बिल नौ मार्च 2010 को भारी बहुमत से पारित हुआ. बीजेपी, वाम दलों और जेडीयू ने बिल का समर्थन किया था.
यूपीए सरकार ने इस बिल को लोकसभा में पेश नहीं किया. इसका विरोध करने वालों में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल शामिल थीं.
ये दोनों दल यूपीए का हिस्सा थे. कांग्रेस को डर था कि अगर उसने बिल को लोकसभा में पेश किया तो उसकी सरकार ख़तरे में पड़ सकती है.
साल में 2008 में इस बिल को क़ानून और न्याय संबंधी स्थायी समिति को भेजा गया था. इसके दो सदस्य वीरेंद्र भाटिया और शैलेंद्र कुमार समाजवादी पार्टी के थे.
इन लोगों ने कहा कि वे महिला आरक्षण के विरोधी नहीं हैं. लेकिन जिस तरह से बिल का मसौदा तैयार किया गया, वे उससे सहमत नहीं थे. इन दोनों सदस्यों की सिफ़ारिश की थी कि हर राजनीतिक दल अपने 20 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को दें और महिला आरक्षण 20 फ़ीसदी से अधिक न हो.
साल 2014 में लोकसभा भंग होने के बाद यह बिल अपने आप ख़त्म हो गया. लेकिन राज्यसभा स्थायी सदन है, इसलिए यह बिल अभी जिंदा है.
अब इसे लोकसभा में नए सिरे से पेश करना पड़ेगा. अगर लोकसभा इसे पारित कर दे, तो राष्ट्रपति की मंज़ूरी के बाद यह क़ानून बन जाएगा. अगर यह बिल क़ानून बन जाता है तो 2024 के चुनाव में महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण मिल जाएगा. इससे लोकसभा की हर तीसरी सदस्य महिला होगी.
महिला आरक्षण पर बीजेपी और कांग्रेस एक साथ
साल 2014 में सत्ता में आई बीजेपी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में इस बिल की तरफ़ ध्यान नहीं दिया. नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में इसे पेश करने का मन बनाया है.
हालांकि उसने 2014 और 2019 के चुनाव घोषणा पत्र में 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण का वादा किया है. इस मुद्दे पर उसे मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस का भी समर्थन हासिल है.
कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी ने 2017 में प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर इस बिल पर सरकार का साथ देने का आश्वासन दिया था.
वहीं कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी ने 16 जुलाई 2018 को प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर महिला आरक्षण बिल पर सरकार को अपनी पार्टी के समर्थन की बात दोहराई थी.
सोमवार को कैबिनेट की बैठक में महिला आरक्षण बिल को मंज़ूरी मिलने की बात सामने आने के बाद कांग्रेस ने इस मुद्दे को उठाया. कांग्रेस ने कहा कि बहुमत होने के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में इस बिल को पारित कराने का कोई प्रयास नहीं किया. कांग्रेस ने विशेष सत्र में इस बिल को पारित कराने की मांग की है.
विशेष सत्र से पहले सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई थी. इसमें कांग्रेस बीजू जनता दल और भारत राष्ट्र समिति और कई अन्य दलों ने महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पेश करने पर ज़ोर दिया था.
इस समय लोकसभा में 82 और राज्य सभा में 31 महिला सदस्य हैं. यानी की लोकसभा में महिलाओं की भागीदारी 15 फ़ीसदी और राज्य सभा में 13 फ़ीसदी है.
महिला आरक्षण बिल का कालचक्र
कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी.इमेज स्रोत,GETTY IMAGES
इंदिरा गांधी 1975 में प्रधानमंत्री थीं तो 'टूवर्ड्स इक्वैलिटी' नाम की एक रिपोर्ट आई थी. इसमें हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति का विवरण दिया गया था.
इसमें महिलाओं के लिए आरक्षण की भी बात थी. इस रिपोर्ट तैयार करने वाली कमिटी के अधिकतर सदस्य आरक्षण के ख़िलाफ़ थे. वहीं महिलाएं चाहती थीं कि वो आरक्षण के रास्ते से नहीं बल्कि अपने बलबूते पर राजनीति में आएं.
राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्री काल में 1980 के दशक में पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिलाने के लिए विधेयक पारित करने की कोशिश की थी, लेकिन राज्य की विधानसभाओं ने इसका विरोध किया था. उनका कहना था कि इससे उनकी शक्तियों में कमी आएगी.
पहली बार महिला आरक्षण बिल को एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने 12 सितंबर 1996 को पेश करने की कोशिश की.
सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया. इसके तुरंत बाद देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गई. देवगौड़ा सरकार को समर्थन दे रहे मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद महिला आरक्षण बिल के विरोध में थे.
जून 1997 में फिर इस विधेयक को पारित कराने का प्रयास हुआ. उस समय शरद यादव ने विधेयक का विरोध करते हुए कहा था, ''परकटी महिलाएं हमारी महिलाओं के बारे में क्या समझेंगी और वो क्या सोचेंगी.''
1998 में 12वीं लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए की सरकार आई. इसके क़ानून मंत्री एन थंबीदुरई ने महिला आरक्षण बिल को पेश करने की कोशिश की. लेकिन सफलता नहीं मिली. एनडीए सरकार ने 13वीं लोकसभा में 1999 में दोबार महिला आरक्षण बिल को संसद में पेश करने की कोशिश की. लेकिन सफलता नहीं मिली.
वाजपेयी सरकार ने 2003 में एक बार फिर महिला आरक्षण बिल पेश करने की कोशिश की. लेकिन प्रश्नकाल में ही जमकर हंगामा हुआ और बिल पारित नहीं हो पाया.
एनडीए सरकार के बाद सत्तासीन हुई यूपीए सरकार ने 2010 में महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पेश किया. लेकिन सपा-राजद ने सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दी. इसके बाद बिल पर मतदान स्थगित कर दिया गया. बाद में नौ मार्च 2010 को राज्यसभा ने महिला आरक्षण बिल को एक के मुकाबले 186 मतों के भारी बहुमत से पारित किया. जिस दिन यह बिल पारित हुई उस दिन मार्शल्स का इस्तेमाल हुआ.
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